Story behind the story
सॉरी दोस्तों कई दिनों से बहुत फंसी हूं, हम रिपोर्टर की जिंदगी कुछ ऐसी सी होती है। हमारी जिंदगी जैसे हमारी नहीं है। सुबह से रात तक कुछ न कुछ बस स्टोरी या खबर। मैंने पिछले दो दिनों में ये नोटिस किया है कि मुझे खबरों और स्टोरी के अलावा कुछ समझ नहीं आता है और वक्त निकलता है तो भी बस स्टोरी के डिस्कसन के लिए।
अच्छी बात है, हम काम करते हैं और काम को ही कुछ मानते हैं। लेकिन अगर हमें अपने लिए ही वक्त न मिले तो कोई मतलब नहीं है। अपने लिए सुकून के दो पल। जिसमें हम अपने साथ हों खुद से बात करें, इंट्रोस्पेक्ट करें। अपनी तलाश करें। अपनों से बात करें। मैं अपने घर वालों से बहुत कम बात करती हूं, अगर करती हूं तो बस दो चार जरूरी। या तो थोड़े गुस्से में या बस सफॉरमैलेटी के लिए। अच्छा नहीं लगता कुछ महसूस करने की हिम्मत नहीं होती, क्योंकि अपने पास इतनी चीजें होती हैं की घर वालों के दर्द या तकलीफ को महसूस करना, दोस्तों से अपनी चीजें शेयर करना। क्योंकि ये प्रोफेशन बहुत अलग है। आप किसी को समझा नहीं सकते। आखिर कैसे आप लड़ते हो रोजाना। फिर भी खुद को बहुत संभालती हूं और समझाती हूं। लेकिन इसमें से ही वक्त निकालना एक कला है।
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