#JaipurLitFest : उस रात का वह भयावह सफर...

डर उस दिन लगा था डर आज भी 5 साल बाद भी लगता है
लेकिन मैंने उड़ना नहीं छोड़ा, अपने पंख नहीं काटे, अपने सपनों को जिंदा रखो। 
कर लो जो करना है मैं आसमान को छूकर रहूंगी। मेरी राहों में तुम जैसे काँटे नहीं बन सकते

उस रोज, तीन बजे जयपुर लिटरेरी फेस्टिवल से निकल कर मैं बस अड्डा पहुंची तो पता चला कि राजस्थान रोडवेज की हड़ताल है। बमुश्किल शाम पांच बजे एक प्राइवेट बस मिली। अक्सर देर-सबेर अकेले आना-जाना तो होता रहता है, लेकिन उस रात जैसे-जैसे वक्त बीतता गया, मेरे भीतर एक अजीब सा भय गहराता चला गया।

मैंने कई दोस्तों को फोन किया। लेकिन कोई फायदा नहीं हुआ। सबके अपने अपने बहाने थे। साढ़े दस बज गए थे और मैं गुड़गांव भी नहीं पहुंच पाई थी। बस में एक-दो ही लोग और थे। वे मुझे ही घूरे जा रहे थे। मैं चुपचाप बैठकर मंजिल का इंतजार कर रही थी। बार-बार ड्राइवर से पूछ रही थी, लेकिन उसके पांच मिनट खत्म होने का नाम ही नहीं ले रहे थे। 11 बज गए तो गुड़गांव का इफ्को चौक आ गया, जहां मुझे उतार दिया गया।


मैंने सब ऊपर वाले पर छोड़ दिया। आस-पास कुछ दिखाई नहीं दे रहा था। बस चंद दुकानें थीं और उनमें सजी थीं शराब की बोतलें। हार कर मैं ठहरने के लिए कमरा खोजने लगी। एक ऑटो वाले ने बताया कि वहां सस्ता और अच्छा एक ही होटल है। लेकिन है जरा दूर। अंधेरे के बीच एक होटल था, लेकिन ये शायद मेरी किस्मत ही थी कि मैं उसके साथ वहां नहीं गई। मुझे लगा कि कुछ भी हो सकता है।

इतने में दूसरा ऑटो वाला आया और उसने कहा- 'मेट्रो खुली होगी, चलो मैं आपको ले चलता हूं। अभी-अभी दो लड़कियों को छोड़कर आया हूं।' मैंने भी झट से कह दिया, 'हां चलो।' मेट्रो स्टेशन पहुंचकर उसने सौ रुपये मांगे, जबकि सफर सिर्फ पांच मिनट का था। 'ज्यादा मांग रहे हो।' कहने पर बोला, 'अरे इतनी देर रात को लाए हैं, कुछ फायदा तो उठाएंगे ही।'

खैर मैंने कुछ नहीं कहा और पास में जितने छुट्टे रुपए थे, उसे देने लगी। लेकिन वह अड़ गया और 'पूरे सौ रुपए लूंगा' कहते हुए मेरा बैग खींचने लगा। बैग छुड़ा लेने पर वह आगे बढ़ने लगा तो खुले पैसे उसे थमा, मैं स्टेशन की सीढ़ियों की तरफ दौड़ गई। तभी एक लड़की और दिखी। उसने बताया कि इफ्को चौक तक पहुंचने के बाद राजीव चौक तक जाना कठिन होगा।

मुझे कैब पर भरोसा नहीं था, लेकिन वह लड़की जैसे भगवान बनकर आई और उसने कैब वालों से मेरी बात करा दी। ये काम मैं भी कर सकती थी, लेकिन बस वाले के धोखा देने के बाद मुझे उन पर भी भरोसा नहीं हो रहा था। कैब में बैठने से पहले गाड़ी का नंबर नोट किया और पूरे रास्ते भगवान का नाम लेते हुए आई। 12 बजे कैब एम्स के बाहर पहुंची, तब भी मैं बेहद सहमी हुई थी।

एक ही सवाल घुमड़ रहा था कि क्या लड़की होना गुनाह है? क्यों मैंने खुले आसमान में उड़ने के सपने देखे? उस रात से आज तक ये सोच कर सो नहीं पाई हूं कि क्या उड़ना छोड़ दूं, क्या बंद कर लूं ये आंखें... क्या बांध लूं खुद को... रुक जाऊं यहीं पर? लेकिन क्यों? 

http://navbharattimes.indiatimes.com/thoughts-platform/good-to-know/my-experience-on-that-night/articleshow/29995330.cms

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