एक मां ऐसी भी...

एक मां ऐसी भी..जो मां होकर भी कभी मां होने के एहसास को महसूस नहीं कर पाई। एक मां ऐसी भी जिसे हमेशा मां के हक से वंचित रखा गया। हमने हमेशा देखा है कि बच्चों के जीवन पर एक मां का सबसे ज्यादा अधिकार होता है। मां के सपने अपने बच्चे के ही इर्द गिर्द घूमते हैं। जैसे जैसे बच्चें बड़े होते हैं मां की उम्मीदों का दामन भी बड़ा होता जाता है। वो सोचती हैं कि जो चीजें वो बचपन में नहीं कर पाई वो सब उनके बच्चे करें।
जिस ममता के दामन से वो अछूती रहीं उस प्यार भरे आंचल को वो अपने बच्चों को उढ़ा सकें। लेकिन ये जरूरी नहीं कि हर मां का नसीब एक जैसा हो। जरूरी नहीं कि हर मां अपने सपने बच्चों की आंखों से पूरा होते हुए देखें। एक मां ऐसी भी जो अपने बच्चों के लिए चाह कर भी कुछ नहीं कर सकती। उन्हें अपने बच्चों के लिए सपने देखना का हक नहीं। वो अपने बच्चों के जीवन से जुड़े कोई फैसले नहीं ले सकती हैं। बच्चों को जन्म तो दे दिया लेकिन उन्हें अपनी ममता की चादर उढ़ा नहीं सकती। वो डरती थी। उनका अधिकार बस बच्चों को जन्म देने तक ही था।
हां एक मां ऐसी भी..वो नहीं जानती थी कि उसे बेटा होगा या बेटी, इस बात से अंजान वो बस मां बनने की ख्वाहिश में जी रही थी, लेकिन जब उसे बेटी हुई थी तो परिवार वाले काफी नाराज हुए। लेकिन वो तो मां बनने के उस एहसास को महसूस कर रही थी। वक्त बीतता गया और उसे बेटे के लिए ताने मिलते रहे। उसके शरीर की अक्षमता के बावजूद उसने फिर से प्रसव किया और फिर एक बेटी को जन्म दिया। अपनी जिंदगी पर भी उसका खुद का कोई हक नहीं था। ऐसे हालातों में मां को कहां अपनी ममता समझ आती। अब आई परवरिश की बारी। उसे कभी ये एहसास ही नहीं हुआ कि वो एक मां है। उसे एक मां के फर्ज से दूर रखा गया।
बच्चों के भविष्य के सारे फैसले वो नहीं उसके परिवार वाले लेने लगे। भले ही वो उन फैसलों से खुश हो या नहीं। अपने बच्चों की जिम्मेदारियां वो खुद उठाना चाहती थी लेकिन उसे एसी नहीं करने दिया गया। मां से उसकी मर्जी पूछी भी नहीं जाती थी। जैसा की हम सब जानते हैं कि हर मां के दिल में अपने बच्चों को लेकर कई अरमान होते हैं लेकिन..ये तो रही बचपन की बात। धीर -धीरे ये सिलसिला बढ़ता गया। बचपन से ही बच्ची घर पर अपने मां पर हो रहे अत्याचारों का मूक दर्शन करती थी, लेकिन कुछ कर नहीं पाती थी। वो इस काबिल नहीं थी कि वो कुछ कर पाए। लेकिन उसने बचपन में ही ठान लिया था कि अपनी मां का खोया हुआ हक वो उन्हें जरूर वापस दिलाएगी।
उसकी उम्र के साथ उसकी महत्वकांक्षाएं भी बढ़ती गई। एक दिन उसने बाहर पढ़ने जाने की बात कही। घर में इसका काफी विरोध हुआ। बच्ची की इच्छा की एक नहीं सुनी गई। इस मामले में भी मां चुपचाप मूर्ति का रुप धारण कर घर में बैठी रही। वो कुछ भी कह नहीं सकी। वो चाहकर भी बेटी का साथ नहीं दे पाई। लेकिन बेटी ने विरोध का सामना किया और मां की चुप्पी को मंजूरी समझकर आगे बढ़ गई है। वो कहते है न मां के आर्शिवाद के बाद किसी और चीज की जरूरत नहीं होती। मां को वैसे तो अपनी बेटी पर खूब भरोसा था। उन्हें उम्मीद थी कि यही बेटी उन्हें उनके हक से रू-ब-रू कराएगी। यही बेटी उन्हें उनकी मर्यादा वापस दिलाएगी। बेटी का संघर्ष आज भी जारी है।
अब आई दूसरी बेटी की बारी। दूसरी बेटी की शादी होनी थी। लेकिन इस बारे में भी मां से कुछ पूछा नहीं गया। एक बेटी की शादी को लेकर मां के कितने सपने जुड़े होते हैं। लेकिन इस मां से नहीं उनकी रजामंदी नहीं मांगी गई। लड़की को किसी के भी संग बांध दिया गया। मां तड़पती रही लेकिन उसकी एक नहीं सुनी गई। उनके दिल के अरमान दिल में ही रह गए। आज वो बेटी तकलीफ में है। मगर मां कुछ नहीं कर सकती है। वो कुछ नहीं कह सकती है। इतनी बेबस और लाचार हैं कि बेटी के लिए कुछ नहीं कर सकती। चाहती थी बेटी का दामन खुशियों से भरना लेकिन समर्थ नहीं थी।
एक मां ऐसी भी जो अपना जीवन तो कभी जी ही नहीं पाई। जिसने कभी अपनी मां को नहीं देखा, जिसे खुद मां की ममता कभी नहीं मिली। वो मां हैं ये..जो खुद मां के आंचल से हमेशा दूर रही उस मां ने अपने बच्चों को वो सब देना चाहा जो उसे कभी नहीं मिला। लेकिन उसके उम्मीदों के दामन में बस बिखर कर रह गए कुछ मोती। दिल आज भी उनका जलता है कि वो अपने बच्चों के लिए कुछ नहीं कर पाई। लेकिन उम्मीद की वो लौ शायद उनके आंखों में आज भी जल रही है कि उन्हें कभी तो मां बनने के बाद सुख मिलेगा। उन्हें कभी तो उस एहसास को जीने का मौका मिलेगा। उन्हें मां होने का हक मिलेगा।
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