जब चलते-चलते टकरा जाते हैं सपनों से...


वो कहते हैं ना कि सपनों के पर होते हैं, वे एक जगह कहां टिके रहते हैं। वे तो इट की दीवारों से बने एक छोटे से कमरे से उड़कर सिंगापुर की बड़ी इमारतें और दिल्ली की सड़कों पर उड़ने लगते हैं। उन्हें किसी सरहद की परवा नहीं और ना ही वे किसी दायरे में बंधते है। उन्हें तो बस उड़ना अच्छा लगता है , इस सच से अंजान की इस उड़ान की कोई मंजिल है भी या नहीं। इस बात से बेपरवा की किसी हालात में अगर इन्हें दम तोड़ना पड़े तो क्या होगा। इन्हें तो इस बात की भी समझ नहीं है कि जिन आंखों में ये बसे हुए हैं वो आंखें इन्हें अपनी पलकों पर जगह तो दे देती हैं, लेकिन उन्हें सच करने की हिम्मत नहीं जुटा पाती हैं अगर वो हिम्मत आ भी जाती है तो कई बार उसके लिए बड़ी कीमत चुकानी पड़ती है। हां अक्सर ऐसा होता है कि हम सपने तो सजा लेते हैं लेकिन उन्हें पूरा करने का जज्बा कहीं खो देते हैं। कई बार तो ऐसा भी होता है कि हम चलते तो हैं अपने ही सपने की तलाश में, लेकिन उस राह पर कुछ ऐसे मोड़ आ जाते हैं कि सपनों की हकीकत ही बदल जाती है और हमें मिलती है एक नई मंजिल। 

हमने कभी सोचा नहीं होता है कि जिस सपने को बचपन से अपनी आंखों में सजा कर रखा था, दिल और दिमाग-रात और दिन बस उसे शिद्दत से पूरा करने का जुनून सवार रहता था, एक वक्त आएगा जब वही सपना कोई और रूप ले लेगा और हम किसी और मंजिल की तरफ बढ़ने लगते हैं। मेरे साथ भी कुछ ऐसा ही हुआ है। इसमें हमारी गलती नहीं होती है और ये कहने वाली बातें होती हैं कि सपने तो फिंर भी सपने होते हैं वे किसी भी हालात में दम नहीं तोड़ते हैं। सपने को पूरा करने के उस सफर में आपके साथ बहुत कुछ ऐसा होता है, बहुत से ऐसे सच सामने आते हैं जो आपको खुद से रू-ब-रू करा देते हैं, जिंदगी बहुत करीब से देखते हैं और तब आखिर में जाकर ये समझ आता है कि सपने तो बस उस खूबसूरत दुनिया का एक हिस्सा है, पुरी दुनिया नहीं। जिसमें रहना तो अच्छा लगता है लेकिन जरूरी नहीं कि उसी को जीवन बना लिया जाए।



वो कहते हैं ना कि मंजिल से ज्यादा उसका रास्ता खूबसूरत है। ये बात सपनो के ऊपर भी फिट बैठती है। जरूरी नहीं जो हमने देखा है वो उसी तरह से पूरा हो। जरूरी नहीं अगर हर इन्सान सपना देखता है तो वो उसे पूरा कर भी ले, लेकिन उस सपने की तलाश का सफर बहुत रुमानी होना चाहिए, जो अपने आप में एक खूबसूरत एहसास है। मैं इस चीज को कुछ इस तरह से देखती हूं। मैं भी तीन साल पहले इस शहर आई थी एक छोटे से सपने को पूरा करने के लिए। तब जिंदगी की सच्चाई से बहुत अंजान थी। एक फैंटसी की दुनिया हुआ करती थी। राजदीप सरदेसाई, बरखा दत्त, रवीश कुमार ये मेरे सपनों की दुनिया का सबसे बड़ा हिस्सा हुआ करते थे। इन्हें देखकर जगना, इन्हें देखकर सोना, खाना-पीना हर कुछ। हां ये नहीं पता था कि मेरा रोड मैप क्या होगा। इन्हें सोचने से पहले सोचने की भी तैयारी करनी होगी। यहां तक पहुंचने के लिए कितनी चीजें जाननी और समझनी होगी। कितने त्याग और बलिदान, और सबसे बड़ी चीज जुगाड़। जब सपना देखा था तब कहां पता था कि इस खूबसूरत दुनिया का एक कड़वा सच भी होगा। परदे के पीछे की कहानी कुछ अलग ही होगी। तब तो बस धून सवार थी। लेकिन इस बीच, एक बात अच्छी हुई जिस सपने की तलाश में मैंने ये सफर शुरू किया था, उसकी मंजिल कहीं और जाकर ही रुकती दिखाई दे रही है और मैं इस बात से दुखी नहीं हूं कि मैंने क्या सोचा था और क्या हो रहा है। कई बार बुरा लगता है कि मैं क्या-क्या नहीं सोचती रहती थी, बड़े लोग, बड़ा आॉफिस, बड़ी पत्रकार और बड़े सपने, लेकिन जिंदगी को कुछ और ही मंजूर है। 

ऐसा नहीं है कि मैंने इस सपने को पूरा करने के लिए मेहनत नहीं की। मैंने अपने हिसाब से जितना करना था किया, लेकिन बहुत कमियां भी रह गई। ये दुनिया उतनी छोटी नहीं है जितनी मैंने इसे अपनी कल्पना की गहराईयों से नापा था। यहां डूबकी लगाना इतना भी आसान नहीं है। मैं वक्त के साथ चलती रही। पता ही नहीं चला लेकिन चीजें अपने आप ही होती गई और सच कहूं तो इसमें मेरा कोई रोल नहीं है। मेरा मतलब है मैं चाहकर भी चीजें रोक नहीं पाई। अगर मैं ये सोचू कि मैंने क्या सोचा था और क्या होता जा रहा है। एक जर्नलिस्ट बनने के लिए आई थी, तब दायरा बहुत सीमित हुआ करता था, बस एक जर्नलिस्ट, लेकिन आज उस तरफ बढ़ते मेरे ये कदम मुझे कहां लेकर आ गए मुझे खुद को पता नहीं चला। बड़ी जर्नलिस्ट तो नहीं बनी हूं अभी तक, लेकिन जीवन के उन पहलूओं से रू-ब-रू हो पाईं हूं, जिससे अब तक अंजान थी। कहां थी मैं। दुनिया क्या है, संघर्ष के अलग-अलग रूप हैं। अब तक मैंने जो संघर्ष किया है वो तो बस शारीरिक और मानसिक था, जिसने मुझे सिर्फ दर्द और अकेलापन दिया है, लेकिन जो अब कर रही हूं इसने मुझे मुझसे मिलाया है। तकलीफ आज भी होती है, लेकिन सुकून भी होता है चलो आज एक और सुमन से मिली मैं। आज जिंदगी को एक कदम और करीब से देखा मैंने। मुझे तो पता ही नहीं था कि इस सफर में अपने सपने का तो पता नहीं लेकिन खुद से पहचान और मुलाकात हो जाएगी। मैं हमेशा सोचती थी कि आखिर मेरी तलाश कहां खत्म होगी। मैं अंत तक क्या अपने गोल तक पहुंच पाऊंगी, लेकिन वो गोल कितना सीमित था इसका इल्म नहीं था मुझे। पहले तो बस एक जर्नलिस्ट बनने को ही अपना गोल समझती आई थी, लेकिन अब पता चला कि ये गोल इतना भी छोटा नहीं है, इसमें पुरी दुनिया समाई है। 

कितनी किताबें, कितनी बातें, कितनों की सोच, खुद से मिलन, सकारात्मक नजरियां और कई सारी अच्छे लोग। मैं जिस दुनिया से आई थी, वहां ये सब कुछ नहीं था। कभी कभी बहुत बुरा लगता है कि मैं क्या बनना चाहती थी और आज किस दिशा में जा रही हूं। लेकिन फिर सुकून मिलता है ये सोचकर की हां यही तो सही राह है, जिसमें मुझे अब तक चलना चाहिए था। यही मेरी असली मंजिल है। यही मेरा मकसद। देर से ही सही लेकिन समझ आ गया कि कई बार वक्त बता देता है कि आपको दरअसल क्या चाहिए और आप किस चीज के लिए बने हैं। मैं ये नहीं कहती की मैंने पा लिया सब कुछ या फिर ये कि मैंने अपना सपना अधूरा छोड दिया। लेकिन मेरे लिए उस मंजिल और सपने से ज्यादा ये सफर कीमती और अहम है और क्या पता इसी रास्ते में चलते चलते मैं अपने सपने से टकरा जाऊं। क्या पता यही वही मेरी मंजिल हो, क्योंकि अंत में तो खुश रहना ही सबसे बड़ा मकसद होता है। 

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