सपनों की नगरी...
12 अगस्त 2011 मैं दिल्ली
आई थी, एक बड़े सपने के साथ, पत्रकार बनने का सपना, जी हां बचपन से बरखा दत को
अपने सपनों में देखती आई थी, हमेशा लगता था कि दिल्ली ही मेरी दुनिया है। मेरे
अपने सपनों का जहां, घर से लड़ झगड़कर यहां
आई। किसी को जानती नहीं थी यहां, पता नहीं कहां और किसके पास आ रही हूं, कहां जॉब
करुंगी। मैं भी इस बात से बेखौफ और बेखबर कि राजधानी में कोई नहीं है मेरा। मैं तो
बस अपनी ही धुन में चलती जा रही थी। डर तो लगता है क्योंकि बस टीवी पर ही दिल्ली
की भयवहता के बार में सुना था, लेकिन सोचती थी बड़ा शहर है यह सब तो होता रहता है,
मैं ठीक हूं तो सब सही रहेगा।
हालांकि आज की दिल्ली और तीन साल पहले दिल्ली में
बहुत फर्क था। हां समाज का नजरिया आज भी वही है, इतना मॉर्डन शहर है लेकिन लोगों
की सोच और महिलाओं को देखने का नजरिया आज भी वही है, आज भी लोग महिलाओं को किसी भी
क्षेत्र में आगे बढ़ते हुए नहीं देखना चाहते हैं, ये तो उनकी जीद और लगन है कि वे
आगे निकल रही है, अपने रास्ते खुद चुनती जा रही हैं। हालांकि जिंदगी इतनी आसान नही
है राहें इतनी सहज नहीं होती है, महिलाओं को हर कदम पर वो सब सहना पड़ता है, जो
उनके दामन पर दाग लगाने की कोशिश करते हैं।
दिल्ली और आसपास के इलाकों
में रेप की घटनाएं तो जैसे आम हो गई है, मैं पूछती हूं रेप क्या सिर्फ उसके शरीर
का होता है, नहीं रेप उसकी आत्मा और मन का भी होता है, केवल शारीरिक रूप से उसका
शोषण किए जाने को रेप नहीं कहते, बल्कि इसकी कई परिभाषा है, यहां हर दो मिनट में
एक लड़की के साथ रेप होता है। कहीं अश्लील शब्दों से तो कहीं अपनी गंदी नजर से, हर
हाल में शोषण तो नारी का ही होता है। जब मैं पहली बार दिल्ली आई तो पहले ही दिन कुछ
ऐसा हुआ जिसे आज भी याद करती हूं तो शिहर ए उठती हूं। शुक्रगुजार हूं उपर वाले का
कि उस दिन मैंने अपने बचाव के लिए कुछ नहीं किया लेकिन उसने मेरा साथ दिया। जिन
सपनों के साथ इतनी दूरी तय करके मैं आई थी, उसने मेरी इज्जत की लाज रखी मेरे दामन
पर कोई दाग नहीं लगने दिया। 13 अगस्त 2011 मैं एक छोटे से होटल के जिस कमरे में रूकी
थी, उसके पास एक और कमरा था जहां कुछ लड़के ठहरे हुए थे, मैंने पहले उन्हें नहीं
देखा और ना ही मुझे पता था। मुझे तो बस कुछ दिनों के लिए कमरा और खाना चाहिए था। बुरी
तरह से थक चुकी थी, दो दिन का सफर तय करके आई थी और कुछ खाया भी नहीं था, रक्षा
बंधन का दिन था।
एक दोस्त की दोस्त पर भरोसा करके यहां आई थी, लेकिन उसने घर से
निकाल दिया। जब हम उस कमरे में कपड़े बदल रहे थे, तो उन लड़कों ने खिड़की से
झांकना शुरू कर दिया। मैंने देखा और कमरे से निकल गई मैंने तुरंत होटल खाली किया
और चल पड़ी। हालांकि मुझे जल्द बाजी नहीं करनी चाहिए थी, या उन्हें इस हरकत के लिए
सबक सीखाना चाहिए था, लेकिन वो कहते हैं न कि कभी कभी चुप रहना जरूरी हो जाता है।
मैं इतनी बुरी तरह से डरी हुई थी कि कुछ समझ ही नहीं आ रहा था बस वहां से निकलना
था। आज लगता है कि मैंने ऐसा क्यों होने दिया। लेकिन वह घड़ी ही कुछ ऐसी थी, अंजान
शहर में बिल्कुल टूटा हुआ महसूस कर रही थी। विरोध करने की ताकत कहां से लाती।
वहां से तो निकल गई लेकिन
क्या इनसे लड़ाई यही खत्म हो गई। नहीं जहां जहां गई हूं हर कदम पर इन लोगों ने
हमें सताया है। एक दिन अगर चैन से निकल जाता है तो लगता है कि हां आज हम जी लिए। हां
आज मुझे भगवान का शुक्रगुजार होना चाहिए कि आज का दिन आराम से निकल गया। पहले
बच्चे या बड़े जब घर से बाहर जाते थे तो घर वालों को डर लगता था कि रास्ते में
कहीं कोई अनहोनी न हो जाए, जैसे सड़क दुघर्टना या ऐसा कुछ, लेकिन अब डर किसी और का
किसी और चीज का रहता है।
इसके बाद एक बार मैं अपनी
ही रूम मेट के साथ बाजार गई, वहां एक लड़के ने भीड़ में मेरी दोस्त के पीछवाड़े
में मारा और सामने भी मारने की कोशिश कर रहा था कि तब तक मैंने उसका हाथ पकड़ा और एक
थप्पड़ लगाया और वहां चिल्लाने लगी, लोग जमा हो गए और वो डर से कहने लगा कि मैंने कुछ
नहीं किया है। मैंने उसे खूब झाड़ा और गालियां दी उसका हाथ भी मचोड़ दिया पुलिस
में ले जाने की धमकी भी दे डाली। उसने माफी मांगी और कहा कि मुझसे गलती हो गई। उस
दिन लगा कि अपने हक के लिए हम लड़ सकते हैं। उस दिन लगा कि मैं यहां सर उठाकर जी
सकती हूं।
कभी कभी ऐसा नहीं होता है,
हम कई बार बिल्कुल बेबस और लाचार हो जाते है। मैं रोजाना आफिस जल्दी जाती थी, ठंड
हो या गरमी बहुत जल्दी जाना होता है। आफिस जाते वक्त मुझे ऐसी गलियों से गुजरना
पड़ता था कि मैं क्या बताऊं। रोजना टिटकारियों का सामना करना पड़ता था, घर के नीचे
उतरने से शुरू करकर आफिस पहुंचने तक रोज कभी रिक्शे वाले से कुछ तो कभी राह चलते
किसी अंजान व्यक्ति से कुछ सुनने को मिलता था। समझ नहीं आता था किस किसको कितनी बार
क्या जवाब दूं। एक दिन मैं रिक्शे से अकेले कहीं जा रही थी और रिक्शे के अंदर किसी
ने हाथ डाला और मेरे बाजुओं को बहुत जोर से नौंच कर चला गया। वो लोग बाइक पर थे,
बाइक स्पीड में थी, जब तक मैं समझती कुछ हुआ है वे जा चुके थे। उस दिन भी मैं कुछ
नहीं कर पाई। खामोश रह गई। कई बार ऐसा हुआ है जब हमें बाद में एहसास होता है कि
हमने अपने लिए कुछ क्यों नहीं किया। दो साल में कई बार हमारे साथ इस तरह की चीजें
हुईं है, कई बार डट कर सामना भी किया है और कई बार नहीं भी कर पाई हूं।
आज जिस तरह से लड़कियां सहम
कर घर से निकलती हैं, लगता है कोई दरिंदा बाहर इंतजार कर रहा है बस अपनी भूख
मिटाने का। इसमें हमारी क्या गलती है। हम लड़कियां जो दूसरे शहरों से आती हैं वे
इन चीजों से अंजान होती है। वे रोजाना एक जंग खुद से लड़ती हैं और दूसरी लड़ाई
समाज से। एक लडाई खुद को हर कदम पर साबित करने की और दूसरी अपने आप को बचाकर सुरक्षित
रहने की। समाज के इन लोगों से जो समाज को बदलने की बात करते हैं लेकिन खुद कभी
नहीं बदलते। सुबह की शुरुआत होती है तो डर लगता है पता नहीं आज क्या होगा।
घर
वालें हमेशा से ही डरते थे कि पता नहीं इस दरिंदों वाले शहर में हमारी बेटी कैसी
होगी। एक लड़ाई तो वो भी लड़ते हैं, बल्कि रोज लड़ते हैं। बस बेटी को अपनी पहचान बनाने में मदद करते हैं। इस
भीड़ में वो खुद को पहचाने इस मुहिम में उसका साथ देते हैं। भुगतना तो उनको भी
बहुत पड़ता है। इस शहर में खुद को बचाकर चलना काफी मुश्किल है। भले ही आप हर लिहाज
से सही हैं आपने अपनी सुरक्षा का पूरा ध्यान रखा है लेकिन फिर भी कहीं न कहीं एक
डर उन्हें जीने नहीं देता है।
इस टिप्पणी को लेखक द्वारा हटा दिया गया है.
जवाब देंहटाएंvery well said. I am proud to be a girl & salute every girl who struggles daily just to prove herself in this male dominant society. And of course a salute to our parents who show faith & trust on us though as already stated they to struggle along with us.
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