सालों बाद राजनीति में प्रणब दा का जिक्र और फिक्र

राष्ट्रपति का कार्यकाल समाप्त होने के बाद हमारे प्रणब दादा एकदम शांत हो गए थे, जैसे राजनीति से संन्यांस ले लिया था, एक्टिव से नहीं थे। लेकिन सालों बाद आरएसएस की बदौलत वे फिर चर्चा में हैं। पीएम की रेस की चर्चा में हैं। आगे क्या होगा अभी पता नहीं है लेकिन प्रणब दा राजनीति के बगैर अधूरे से लगते हैं।

राष्ट्रपति बनने का इतिहास

आने वाले दिनों में वित्त मंत्री प्रणब मुखर्जी को भारत के राष्ट्रपति की दौर में सबसे आगे देखा जा रहा है। कांग्रेस ने भी प्रणब मुखर्जी को इस दौर में आगे रखने की कवायद तेज कर दी है। यहीं नहीं अन्य राजनैतिक दलों ने भी उनके नाम पर सहमति जतानी शुरू कर दी है।


गौरतलब है कि प्रणब मुखर्जी के नाम पर इसके पहले भी राष्ट्रपति जैसे सम्मानजनक पद के लिए विचार किया गया था। लेकिन केंद्रीय मंत्रिमंडल में व्यावहारिक रूप से उनके अपरिहार्य योगदान को देखते हुए उनका नाम हटा लिया गया था।


एक आम आदमी से वकील, प्रोफेसर,सांसद और फिर देश के वित्त मंत्री बनने तक का सफर काफी उतार चढ़ाव भरा रहा। प्रणव मुखर्जी वर्तमान में भारत के वित्त मंत्री एवं भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के प्रमुख नेता है। उनका संसदीय करियर करीब पांच दशक पुराना है, जो 1969 में कांग्रेस पार्टी के राज्यसभा सदस्य के रूप में उच्च सदन शुरू हुआ था।

उन्हें कुल छह बार सांसद चुना गया। 1975, 1981,1993 और 1999 में फिर से चुने गए। 1973 में वह औद्योगिक विकास विभाग के केंद्रीय उप मंत्री के रूप में मंत्रिमंडल में शामिल हुए।
प्रणब वर्ष 1982 से 1984 तक कई कैबिनेट पदों के लिए चुने जाते रहे। इसके बाद वर्ष 1984 में वह पहली बार भारत के वित्त मंत्री बने। वर्ष 1984 में ही यूरोमनी पत्रिका के एक सर्वेक्षण में उनको विश्व के सबसे अच्छे वित्त मंत्री के रूप में मूल्यांकित  किया गया।

प्रणव मुखर्जी ने कलकत्ता विश्वविद्यालय से कानून की उपाधि प्राप्त की। प्रणव इतिहास और राजनीति विज्ञान के छात्र रह चुके है।

पश्चिम बंगाल के वीरभूम जिले के किरनाहर शहर के निकट मिराती गांव में एक ब्राह्मïण परिवार में कामदा किंकर मुखर्जी और राजलक्ष्मी मुखर्जी के बेटे के रूप में उनका जन्म हुआ। सिर्फ प्रणव ही नहीं बल्कि उनके पित भी पहले से ही राजनीति में सक्रिय थे। उनके पिता 1920 से कांग्रेस पार्टी में कार्यरत थे। पिता का हाथ पकड़ कर ही उन्होंने राजनीति में प्रवेश किया।

प्रणव के पिता पश्चिम बंगाल विधान परिषद 1952-64 के सदस्य और वीरभूम पश्चिम बंगाल जिला कांग्रेस कमेटी के अध्यक्ष थे। उनके पिता एक सम्मानित स्वतंत्रता सेनानी भी थे, जिन्हें ब्रिटिश शासन की खिलाफत के लिए 10 वर्षो से अधिक समय के लिए जेल भेजा गया था।

इतिहास व राजनीति में डिग्र्री प्राप्त करने के बाद प्रणव मुखर्जी ने एक कॉलेज प्राध्यापक के रूप में अपने करियर की शुरूआत की। इसके बाद एक पत्रकार के रूप में अपने करियर को आगे बढ़ाया। उन्होंने जाने-माने बांग्ला प्रकाशन संस्थान देशेर डाक मातृभूमि की पुकार के लिए काम किया। इसके बाद वह बंगीय साहित्य परिषद के ट्रस्टी बने। बाद में निखिल भारत बंग साहित्य सम्मेलन के अध्यक्ष भी बने।

वर्ष 1984 में राजीव गांधी सरकार के कार्यकाल के दौरान पहली बार वित्त मंत्री बने प्रणव मुखर्जी ने पार्टी से मतभेदों के चलते अपनी अलग पार्टी राष्ट्रीय समाजवादी कांग्रेस बना डाली, लेकिन बाद में वर्ष 1989 में राजीव गांधी के साथ समझौता होने के बाद कांग्रेस पार्टी में ही प्रणव की पार्टी का विलय हो गया। तब उनका राजनीतिक करियर पुनर्जीवित हो गया। इसके बाद पी.वी.नरसिंह राव ने उन्हें योजना आयोग के उपाध्यक्ष के रूप में चुन लिया। इसके बाद वह केंद्रीय कैबिनेट मंत्री के तौर पर नियुक्त किए गए। उन्होंने राव के मंत्रीमंडल में 1995 से 1996 तक पहली बार विदेश मंत्री के रूप में भी कार्य किया गया। 1997 में उन्हें उत्कृष्ट सांसद चुना गया।

सन 1985 के बाद से वह कांग्रेस की पश्चिम बंगाल राज्य इकाई के भी अध्यक्ष बने। सन 2004 में जब कांग्रेस ने गठबंधन सरकार के अगुआ के रूप में सरकार बनाई तो कांग्रेस के प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह सिर्फ एक राच्यसभा सांसद ही थे। इसलिए जंगीपुर लोकसभा निर्वाचन क्षेत्र 7 जंगीपुर लोकसभा निर्वाचन क्षेत्र से पहली बार लोकसभा चुनाव जीतनेवाले प्रणव मुखर्जी को लोकसभा में सदन का नेता बनाया गया। उन्हें रक्षा, वित्त, विदेश विषयक मंत्रालय, राजस्व, नौवहन, परिवहन, संचार, आर्थिक मामले, वाणिच्य और उद्योग, समेत विभिन्न महत्वपूर्ण मंत्रालयों के मंत्री होने का गौरव भी हासिल हुआ। वह कांग्रेस संसदीय दल और कांग्रेस विधायक दल के नेता भी रह चुके है। साथ-साथ वह लोकसभा में सदन के नेता, बंगाल प्रदेश कांग्रेस पार्टी के अध्यक्ष, कांग्रेस के नेतृत्व वाली सरकार के प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की मंत्रीपरिषद में केंद्रीय वित्त मंत्री हैं। लोकसभा चुनावों से पहले जब प्रधानमंत्री ने बाई-पास सर्जरी कराई, प्रणव, विदेश मंत्रालय में केंद्रीय मंत्री होने के बावजूद राजनैतिक मामलों की कैबिनेट समिति के अध्यक्ष और वित्त मंत्रालय में केंद्रीय मंत्री का अतिरिक्त प्रभार लेकर मंत्रिमंडल के संचालन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।

10 अक्तूबर 2008 को मुखर्जी और अमेरिकी विदेश सचिव कोंडोलीजा राइस ने धारा 123 समझौते पर हस्ताक्षर किए। वह अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष के विश्व बैंक,एशियाई विकास बैंक और अफ्रीकी विकास बैंक के प्रशासक बोर्ड के सदस्य हैं।

मुखर्जी की अपनी पार्टी के भीतर व  विपक्षी पार्टियों में भी एक साफ छवि बनी हुई है। जब सोनिया गांधी अनिच्छा के साथ राजनीति में शामिल होने के लिए राजी हुईं तब प्रणव मुखर्जी उनके प्रमुख परामर्शदाताओं में से एक थे।

मुखर्जी की अमोघ निष्ठा और योग्यता ने उन्हें सोनिया गांधी और मनमोहन सिंह के करीब लाया। इस वजह से जब 2004 में पार्टी सत्ता में आई तो उन्हें भारत के रक्षा मंत्री के प्रतिष्ठित पद पर पहुंचने में मदद मिली। सन 1991 से 1996 तक वह योजना आयोग के उपाध्यक्ष पर रहे।

2005 के प्रारंभ में पेटेंट संशोधन बिल पर समझौते के दौरान उनकी प्रतिभा के दर्शन हुए। रक्षा मंत्री के रूप में प्रणव मामले में औपचारिक रूप से शामिल नहीं थे, लेकिन बातचीत के कौशल को देखकर उन्हें आमंत्रित किया गया था। ज्योति बसु सहित कई पुराने गठबंधनों को मनाकर मध्यस्थता के कुछ नये बिंदू तय किये, जिसमे उत्पाद पेटेंट के अलावा और कुछ और बातें शामिल थीं। तब उन्हें, वाणिच्य मंत्री कमल नाथ सहित अपने सहयोगियों यह कहकर मनाना पड़ा कि कोई कानून नहीं रहने से बेहतर है एक अपूर्ण कानून बनना। अंत में 23 मार्च 2005 को बिल को मंजूरी दे दी गई।

इन दिनों वरिष्ठ नेताओं पर लग रहे भ्रष्टाचार के आरोपों के बाद भी प्रणव मुखर्जी की खुद की छवि बिल्कुल पाक-साफ है।

उन्होंने एक बार इस मुद्दें पर कहा, घोषणा पत्र में हमने इससे निपटने की बात कही है, लेकिन मैं यह कहते हुए क्षमा चाहता हूं कि यह घोटाले केवल कांग्रेस या कांग्रेस सरकार तक ही सीमित नहीं हैं। बहुत सारे घोटाले हैं। विभिन्न राजनीतिक दलों के कई नेता उनमे शामिल हैं। तो यह कहना काफी सरल है कि कांग्रेस सरकार भी इन घोटालों में शामिल थी।

24 अक्टूबर 2006 को उन्हें भारत का विदेश मंत्री नियुक्त किया गया। रक्षा मंत्रालय में उनकी जगह ए.के. एंटनी ने ली, जो कांग्रेस के एक वरिष्ठ नेता और दक्षिणी राच्य केरल के भूतपूर्व मुख्यमंत्री रह चुके थे। मुखर्जी की वर्तमान विरासत में अमेरिकी सरकार के साथ असैनिक परमाणु समझौते पर भारत-अमेरिका के सफलतापूर्वक हस्ताक्षर और परमाणु अप्रसार संधि पर दस्तखत नहीं होने के बावजूद असैन्य परमाणु व्यापार में भाग लेने के लिए परमाणु आपूर्तिकर्ता समूह के साथ हुआ हस्ताक्षर शामिल है। सन 2007 में उन्हें भारत के दूसरे सबसे बड़े नागरिक सम्मान पद्म विभूषण से नवाजा गया।

इन सबके बाद मनमोहन सिंह की दूसरी सरकार में भी श्री मुखर्जी ही भारत के वित्त मंत्री बने, जिस पद पर वे पहले 1980 के दशक में काम कर चुके थे। 6 जुलाई, 2009 को उन्होंने सरकार का सालाना बजट पेश किया। उन्होंने ऐलान किया कि वित्त मंत्रालय की हालत इतनी अच्छी है कि माल और सेवा कर लागू कर सके, जिसे महत्वपूर्ण कॉरपोरेट अधिकारियों और अर्थशास्त्रियों ने सराहा। उन्होंने राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी अधिनियम, लड़कियों की साक्षरता और स्वास्थ्य जैसे सामाजिक क्षेत्र की योजनाओं के लिए और धन का प्रावधान किया। इसके अलावा उन्होंने राष्ट्रीय राजमार्ग विकास कार्यक्रम, बिजलीकरण का विस्तार और जवाहर लाल नेहरू राष्ट्रीय शहरी नवीकरण मिशन की तरह बुनियादी सुविधाओं वाले कार्यक्रमों का भी विस्तार किया। हालांकि, कई लोगों ने 1991 के बाद से सबसे अधिक बढ़ रहे राजकोषीय घाटे के बारे में चिंता व्यक्त की। श्री मुखर्जी ने कहा कि सरकारी खर्च में विस्तार केवल अस्थायी है और सरकार वित्तीय दूरदर्शिता के सिद्धांत के प्रति प्रतिबद्ध है।

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