मोदी ने कुपोषण को बीमारी नहीं मध्य वर्गीय सोच बताया ...
नई दिल्ली। भारत के प्रधानमंत्री जिस कुपोषण को राष्ट्रीय शर्म बताते हैं वहीं दूसरी ओर गुजरात में बढ़ते कुपोषण के लिए राज्य के मुख्यमंत्री मध्यम वर्गीय महिलाओं की सोच को जिम्मेदार ठहराते हैं। वाल स्ट्रीट जनरल को दिए एक इंटरव्यू के दौरान उन्होंने राज्य में बढ़ते कुपोषण के मामलों पर बेहद चौंकाने वाला बयान दिया है। अपने बयान के बाद राज्य के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी विवादों के घेरे में आ गए हैं।
कुपोषण को देश की एक बीमारी नहीं बल्कि मध्य वर्गीय लोगों की सोच करार देते हैं। मोदी ने इंटरव्यू के दौरान कहा कि गुजरात में मध्यम वर्गीय लोगों की तादाद ज्यादा है। यह लोग अपनी सेहत से ज्यादा अपनी सुंदरता व फिगर पर ध्यान देते हैं, इसलिए ऐसे लोग कुपोषण का शिकार होते हैं। अपने जवाब में मोदी ने उन लोगों पर कटाक्ष किया जिन लोगों के पास खाने को तो है लेकिन ज्यादा खाना या पौष्टिक खाना उनकी च्वायस में नहीं है।
लेकिन इस दौरान वह गुजरात के उस वर्ग को भूल गए जहां कुपोषण एक खतरनाक बीमारी की तरह फैल रहा है। देश का वह चेहरा जो दो वक्त की रोटी के लिए भी तरस जाता है। गुजरात के मुख्यमंत्री इस दौरान यह भी भूल गए कि भारत में सबसे ज्यादा कुपोषण के मामले गुजरात में ही सामने आए हैं। अपने को विकास का माडल बताने वाले गुजरात में एक सर्वे के मुताबिक लगभग 41 फीसद बच्चों का वजन जरूरत से कम है। 5 साल से कम उम्र में मरने वाले 6 फीसद बच्चे भूख से मरते हैं तो 22 फीसद आबादी को पर्याप्त भोजन ही नहीं हासिल है।
15 से 45 के उम्र की 55 फीसद महिलाएं खून की कमी से जूझ रही हैं। गुजरात के मुख्यमंत्री के बयान के आगे यह सभी आंकड़े बेहद चौंकाने वाले हैं। अपने इस बयान पर मोदी विपक्ष समेत दूसरी पार्टियों के नेताओं के निशाने पर भी आ सकते हैं।
भारत के कई राज्य जैसे असम, मध्यप्रदेश, गुजरात, पश्चिम बंगाल, राजस्थान, छत्तीसगढ़ में कुपोषण एक बड़ी बीमारी की तरह फैल रही है। एनएसएस ने कुपोषण के मामले में गुजरात को इन सभी राज्यों में से सबसे आगे पाया है।
कुपोषण के असली शिकार तो देश के वह लोग हैं जो गरीबी रेखा के नीचे रहते हैं और जिनकी आय काफी कम है। यूनिसेफ द्वारा कराए गए एक सर्वे के मुताबिक भारत में छह मिलियन लोग कुपोषण के शिकार हैं। रिपोर्ट के मुताबिक भारत में तीन वर्ष की आयु के 47 फीसद बच्चे कुपोषण से ग्र्रस्त हैं। वहीं पांच साल से ज्यादा के उम्र के बच्चों में यह आंकड़ा 44 फीसद का है।
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