Story behind the story

कई बार हम बड़े और अनुभवी पत्रकारों को देखकर सोचते हैं उन जैसा बनेंगे, बड़ी स्टोरी ब्रेक करेंगे। जब वो प्रेस कॉंफ्रेंस में होते हैं तो हमें लगता है अरे सीनियर हैं इनको बहुत पता होगा, ये अच्छे सवाल करते हैं, इनके सामने हम कहां। हम तो जैसे कुछ जानते ही नहीं हैं। 

लेकिन मैंने पिछले दिनों फील्ड रिपोर्टिंग में ये महसूस किया कई बार अधिकतर ऐसा नहीं होता। खाम खा हमें जो जुनियर हैं या यूं कहें फील्ड में नए हैं लेकिन पत्रकारिता में नहीं वो काफी कुछ पढ़ते लिखते हैं। वो बहुत कुछ जानते हैं। बस एक इंफेरियर कॉप्लेक्स से गुजरते हैं। सोचते हैं सामने वाला ज्यादा जानता होगा, अनुभवी है सीनियर है इसलिए । जबकि उसकी पकड़ कम है वो बस रुतबे की खाता है कि वो सालों से फील्ड में है। कई बार सीनियर आपके सवालों पर हंसते भी हैं और आपको एक पर्सेंट की तबज्जो नहीं देते। 

जरूरी नहीं होता कि जो सालों से फील्ड में है तो हर कुछ जानता है। सब सबजेक्ट पर उसे नॉलेज हो और जो नया है फील्ड में, भले ही उसे फील्ड का तजुरबा कम है लेकिन उसे काम आता है, पढ़ता लिखता है समझ है। खबरों का सेंस है। सवाल नहीं कर पा रहा लेकिन अपने बीट की खबर है नॉलेज है। बस वो सीनियर को देखकर एक कसमकस में है कि शायद वो कुछ गलत न पूछ ले। जबकि अंदर से वो जानता है कि उसके पास सही सवाल है। कहीं ना कहीं मुझे लगता है सीनियर को अपने इस रौब से बाहर आकर उस जुनियर का हाथ थामना चाहिए। 

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