भागी तो मैं भी थी, लेकिन खुद को साबित करने के लिए, जिम्मेदारियों-संस्कारों से नहीं
भागी तो मैं भी थी अपने घर
से लेकिन अपने सपने के लिए नहीं, अपने पिता को साबित करने के लिए। एक मोटी और छोटी
सी लड़की जिसे उसके घर में कोई भी ज्यादा पंसद नहीं करता था। लेकिन घर में सबसे
अलग और अपनी एक अलग ही दुनिया में रहने वाली सुमन, बचपन से ही बड़े सपने के पीछे
भागने वाली, पढाई –लिखाई में बहुत तेज, लेकिन अच्छी स्कूल नहीं मिली। पांचवी कक्षा
तक अंग्रेजी की किताब हाथ में तक नहीं ली लेकिन घर में सभी बच्चों से अच्छी
अंग्रेजी सीख ली। हर काम में तेज, सबसे आगे।
अच्छे स्कूल में पढ़ाने के
लिए पापा के पास पैसे नहीं थे और फिर पापा के ऊपर पूरे परिवार की जिम्मेदारी थी।
बड़ी दीदी और भाई को अंग्रेजी स्कूल मिली, लेकिन मुझे गांव की एक प्राथमिक
विद्यालय में भेज दिया गया। कोई ड्रेस नहीं, कोई ट्यूशन नहीं। बावजूद इसके स्कूल
में नंबर वन और 10वीं की परीक्षा में भी जिले में टॉप किया। घरवालों की उम्मीदें
बनने लगी।
लेकिन फिर भी अच्छी कॉलेज में दाखिला नहीं दिलाया, क्योंकि मारवाड़ी
परिवार की लड़कियां बाहर पढ़ने नहीं जाती। ना ही पापा के पास इतने पैसे थे। उसी
दिन से शुरू हो गया मेरा संघर्ष। पहली बार घर से बाहर कदम निकाला और कॉलेज की पढाई
करने के लिए छोटे शहर गई। आज से 10 साल पहले अपने घर से भागी थी। दबे पांव बाहर का रास्ता
चुना। पहले तो हिम्मत नहीं हुई, लेकिन सपनों की उड़ान ने हिम्मत को पंख दे दिए
और मैं खुले आसमान में उड़ने के लिए निकल पड़ी। क्योंकि मुझे पता था मेरी सोच
और सपने घर से बिलकुल अलग हैं। मुझे वहां कोई नहीं समझेगा और मेरे पंख काट दिए
जाएंगे। 20 के बाद शादी करा दी जाएगी।
बचपन से ही बहुत बोलती थी
और हमेशा अन्याय के खिलाफ आवाज उठाती थी। व्यक्तित्व कुछ इस तरह का ही बनता जा रहा
था। गांव और छोटे शहर में पत्रकारिता की पढ़ाई नहीं थी और मोटी होने के कारण मुझे पापा
और बाकी लोग कुछ खासा पसंद नहीं करते थे। पढ़ाई के लिए पैसे भी नहीं देते थे, ऐसे
में पापा की नजर में खुद को साबित करना बहुत जरूरी हो गया था। जब भी घर में कोई
चीज आती औरौं को दे दी जाती लेकिन मुझे बाद में मिलती। सबको लगता था मैं कुछ नहीं
कर पाऊंगी। क्योंकि हम तीन बहनें थी तो पापा को मैं ही ज्यादा बोझ लगती थी और मुझे
उनका गर्व बनना था। लड़की एक बोझ नहीं है इसे साबित करना था। कॉलेज खत्म कर निकल
पड़ी पत्रकारिता में आगे की पढ़ाई करने।
मारवाड़ी और वो भी लड़की होकर ऐसा कोई रास्ता चुनना अपने आप में एक चुनौती थी।
मालदा से कोलकाता, कोलकाता से दिल्ली का सफर आसान नहीं था। मालदा से कॉलेज की
पढ़ाई खत्म करके कोलकाता उच्च शिक्षा के लिए आई, लेकिन यहां भी रिश्तेदारों ने
जीना मुश्किल कर दिया। हालांकि तब तक घर पर आना-जाना लगा रहता था, पत्रकारिता में
भर्ती के लिए कई कॉलेज के धक्के खाए, फिर जाकर एडमिशन मिला और पापा ने पहले
सेमेस्टर में ही कह दिया था कि खुद का बंदोबस्त कर लूं क्योंकि वो नहीं मैनेज कर
पाएंगे। भाई बहन की पढ़ाई भी है। मैंने ट्यूशन शुरू की और साथ में पढाई की।
अंग्रेजी, हिंदी, बंगाली कई भाषाएं आती थी। कई जगह सेमिनार, लेक्चर देती थी। डिबेट
करती थी।
कई जगह आर्टिकल लिखे, कई एनजीओ के साथ काम करने लगी। गरीब बच्चों को
मुफ्त में पढ़ाया भी। घर में नहीं लेकिन बाहर प्यार तलाशती थी। दीदी के घर पर
रहना, सारा काम करना और पूरे दिन में एक बार खाना खाना। ५ किमी तक पैदल चलकर कॉलेज
जाना लेकिन एमए कर ही लिया। यूनिवर्सिटी में तीसरा रैंक हासिल किया। दो साल बाद जब
कोलकाता में नौकरी के लिए धक्के खाने पड़े और सबने कहा दिल्ली जाकर ही मीडिया में
फ्यूचर बन सकता है तो मैंने ठान लिया और मैं एक बैग उठाकर दिल्ली के लिए निकल गई।
घर वालों को कुछ पता नहीं था, तब तक वे मुझे गलत ही समझते थे और कहते थे कि तुम एक
जिद्दी लड़की हो और कुछ नहीं कर सकती हो।
5 हजार रुपए और एक बैग लेकर जब मैं
दिल्ली आई तो घर वालों ने मुझे बागी करार दे दिया और नफरत करने लगे। काफी नाराज
हुए कितने महीने कोई बातचीत नहीं। रिश्तेदारों ने पापा को खूब बातें सुनाई तोहमत
लगाई और कहा कि एक अकेली लड़की और वो भी दिल्ली के नोएडा शहर में। पता नहीं क्या
करती है और कहां रहती है। फलाने की बेटी तो बिगड़ गई है।
पापा से बुआ ने कहा, अपनी
बेटी को काबू नहीं कर पाए। पहला साल धक्के खाते हुए निकला, कभी फ्रीलांस किया,
ट्यूशन किए, बीपीओ में काम किया, लेकिन पत्रकारिता का सपना नहीं छोड़ा। लिखती
पढ़ती रहती थी, रोजाना पैदल जा-जाकर इंटरव्यू देना, कितने दिन एक बार खाकर या कभी
बगैर खाए रात बिताई। लेकिन एक राम का मन
जो कभी न थका। आखिरकार दैनिक जागरण में नौकरी मिली और जब घर वालों को बताया तो
उन्हें कुछ खास खुशी नहीं हुई।
फिर भी मां पापा से बात शुरू हुई और उनका यकीन तब
बनने लगा जब मैंने कई साल नौकरी के बाद घर की सभी समस्याओं में हिस्सा लिया, उनकी
मदद की, भाई –बहन को पढ़ाई में सहारा दिया। घर आना-जाना शुरू किया। हर छह महीने
में घर जाकर हर किसी का इलाज, दवा और बाकी समस्याओं में सबसे आगे खड़े होकर मैंने
खुद को साबित किया। घर वालों को लगा पता नहीं कुछ गलत काम कर लिया होगा इतने सालों
में लेकिन जब कई जगह मेरे बारे में सुना और दोस्तों से पता चला, तब जाकर यकीन हुआ।
6 साल से सही सलामत दिल्ली में काम कर रही हूं, घर वाले इतना सम्मान करते हैं बेटे
की तरह घर के हर फैसले में आगे रखते हैं मुझे। मैं भागी जरूर थी लेकिन मैं रिश्तों
से, अपनी मर्यादाओं ने नहीं भागी थी। आज मैं सबकी चहेती हूं और अपने भाई बहनों की
आदर्श क्योंकि मैं घर से भागी थी जिम्मेदारियों से नहीं। हर काम के लिए सबसे पहले
मेरा नाम लिया जाता है।
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