Story behind a Media House

इन दिनों मीडिया में कितनी अस्थिरता आ गई है। आए दिन बस आफिस पहुंचते ही सबसे पहले यही खबर मिलती है कि आज इसने रिजाइन कर दिया, तो कल उसने। किसी को निकाल दिया गया तो किसी का इस्तीफा तैयार है। कोइ खुद छोड़ना चाहता है परेशान होकर, तो कोइ मजबुर है। छोटे शहरों के लोगों में मीडिया में काम करने को लेकर एक जोश हुआ करता था, लेकिन अब इस काम को सब पैशन की तरह नहीं बल्कि एक नौकरी की तरह लेने लगे हैं। 

बड़े लेवल पर या छोटे लेवल पर, हर कोई बस आफिस में परेशान और चिड़चिड़ाकर काम करता है। कोई ऐसा नहीं है जो एक दिन भी खुश होकर काम करता है। सुबह आती हूं तबसे देखती हूं, मेरी सीट के सामने एक वीडियो एडिटर है, वो इतना फ्रस्ट्टेट है बस क्या कहें। मैं परेशान होकर सीट चेंज कर चुकी हूं। वो राज आते थे और बस चिल्लाना, और वकवास। काम कम होता है, बस शोर। हालांकि दोष उनका नहीं था, उनके पास काम बहुत था, उनका कहना था कि काम थोपा जाता है। पता नहीं जो भी है। 

लोग अफिस में काम की चर्चा, न्युज पर चर्चा, डिबेट ये सब कम करते हैं, बस गॉसिप। कौन कहां जा रहा है, क्या हो रहा है, कैसे हो रहा है। कब क्या हो जाएगा। एक डर के साये में जिंदगी गुजर रही है। इससे कुछ और नहीं बस काम की क्वालिटी बेकार होती है। क्योंकि कोइ भी स्थिर नहीं है, किसी का काम में दिल नहीं है। ऐसा नहीं है कि ये माहौल अभी है, ज्यादातर वक्त ऐसा ही होता है। इसका मतलब क्या। मीडिया क्रिएटिविटी की जगह हुआ करता था, नॉलेज की जगह लेकिन अब ऐसा कुछ नहीं नजर आता है

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