“ मैं ”

जब कोई नहीं था उन अंधेरी रातों में तुम खड़ी थी मेरे पास
जब गुजरती थी उन संद गलियों से तुमने दिया सहारा, थामा मेरा हाथ
अंधेरों में बनकर रोशनी तुमने किया जीवन में उजाला
मैं टूटी-बिखरी, वक्त से हारी, हर बार मुझे तुमने संभाला
सबने छोड़ दिया बीच राह में, तुमने थामा दामन भटकती आह में
मैं गिरती, उठती, दर्द से जुझती, एक आवाज हमेशा आती दिल से
जहां चलोगी चलूंगी बनकर साया, नहीं छोड़ूंगी हाथ कसम से
सब कहते रहे हम साथ हैं तेरे, कभी दिखा नहीं कोई उन बरसातों में
एक तुम ही थी जिसने सुनी कड़वट बदलती सिसिकिया उन रातों में
कभी समझ नहीं पाई आखिर किसके एहसास ने दी ताकत जीने की
क्या नाम दूं तुम्हें मुझमें ही " मैं "  बनकर बसी हो अटकी हैं सांसे तुममें ही

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