मुझमें कुछ मर गया....
मुझे नहीं पता कुछ लिखने का दिल क्यों नहीं कर रहा,कहते हैं एक पत्रकार को जब लिखने पढ़ने का मन ना करें तो मतलब उसके अंदर कुछ मर गया है। वो चाहता है कुछ कहना कुछ करना, लेकिन होता कुछ और है। इस आपाधापी में उसके अंदर पत्रकार मर जाता है। वो बस एूक रिपोर्टर बनकर रह जाता है। क्या मैं गलत हूं। मुजे नहीं पता। मुझे उड़ना था आसमान में। पत्रकारिता को समझकर नहीं करना चाहती थी। बस जीना चाहती थी। पत्रकारिता को जीना चाहती थी। मैं तो नहीं मरी, एक रिपोर्टर जिंदा है, काम कर रहा है। बस एक पत्रकार जो सालों पहले इस शहर में एक जुनून लेकर आया था वो अंदर ही अंदर मर गया है। मैं उससे वापस से मिलना चाहती हूं। उस जुनून के साथ जीना चाहती हूं। मैं आम नहीं थी खास थी।
पत्रकारिता की भीड़ में हम बस खबरें करते हैं और अंदर का वो लेखक कहीं मर जाता है, ऐसा होने नहीं देना चाहिए। वक्त के साथ -साथ मैं बहती रही और उसी बहती लहर में मेरी जिंदगी भी। अब मुड़कर देख रही हूं तो लगता है काम तो किया है लेकिन क्या यही करना था। अब जब अपनी उस सुमन को ढूंढती हूं तो लगता है कुछ मर गया है। लगता है कुछ मर गया है। लगता है कुछ मर गया है।
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