जिंदगी के कई रंग...

आज जीवन के उस पहलु से रू-ब-रू हुए जिससे हम रोजाना मुखातिब तो होते हैं लेकिन कभी इतनी फुरसत नहीं होती कि झांक कर देख लें उन्हें भी, रंग भर दें उनके जीवन में भी, जी लें उनके संग दो चार पल जीवन के भी। हम अपनी दुनिया, अपने गम, अपनी खुशी, अपने सपने, अपने जहान से बाहर निकल ही नहीं पाते हैं कि इसके परे भी एक दुनिया है जो बेरंग है उसे देख लें, उसे जरा संवार दे। रोज मैं अपने हॉस्टल के पास एक बाजार से गुजरती हूं, रोज उस बच्चे को अपनी मां के साथ देखती हूं। जो अपने गोद में एक और छोटा सा बच्चा लेकर भीख मांगती नजर आती है। सच तो ये है कि मैं भी औरों की तरह उसे देखकर चली जाती हूं।






रोजाना उनके पास से होकर गुजरती हूं, लेकिन कभी उनके लिए कुछ नहीं किया। कभी सोचने की जहमत भी नहीं उठाई कि एक दुनिया ये भी है। जीवन का एक रंग ऐसा भी है। जब हम अपनी बेतुकी परेशानियों से घिरे रहते हैं उस वक्त हम भूल जाते हैं कि कितने ऐसे हैं जो खुशहाल जिंदगी को जीना तो दूर उसका ख्वाब देखने के बारे में भी हजार बार सोचते होंगे। क्या कभी अपने जीवन से उनके लिए दो पल निकालने का सोचा हमने। क्या कभी उन्हें एक पल की खुशी देने की कवायद की हमने। हर किसी का नहीं लेकिन अगर एक भी जिंदगी आपकी एक पहल से बदल सकती है तो क्यों नहीं हम इस बारे में एक कदम बढ़ाए। 

इसी बाजार में कई रेस्तरां हैं जहां खाने पीने की हजार चीजें मिलती है, लोग अपने परिवारों के साथ वहां आते हैं बैठते हैं खाते हैं और चले जाते हैं। कुछ रिक्शेवाले, कुछ गुब्बारे बेचने वाले, कुछ भीखारी वहां बैठे रहते हैं और ताकते रहते हैँ। उनकी उम्मीद भरी निगाहें कितने सवाल पैदा कर देती है। वे इस आश के साथ वहां रात के 10 बजे तक बैठे रहते हैं कि शायद आज उनकी झोली में भी कुछ खुशियां गिर जाए। कहीं आज घर जाकर वे चैन की निंद सोले। रात के 10 बजे तक गुब्बारे वाला वहां बैठा रहता है ताकि कोई बच्चा आए और कुछ खरीद ले। इससे ज्यादा तकलीफ तब होती है जब वे बाकी लोगों को वहां आते देखते हैं और सोचते होंगे कि इस जीवन में तो ये सपने देखने भी काफी महंगे है। शहर की चकाचौंध, गाड़ियों में लोगों का आना-जाना रेस्तरां में खाना खाना, उनके लिए ये सब एक सपने जैसा है। हालांकि वे अपनी उस दाल रोटी में खुश रहने की कोशिश करते हैं।


एक दिन की बात है रात के 9.30 बज रहे थे, जब मैं और मेरी दोस्त हम कुलफी खाने बाजार गए, लेकिन हमें अच्छा नहीं लगा क्योंकि वे वहां उम्मीदों का दामन फैला कर खड़े थे। उम्मीद इस बात की नहीं कि कोई उनका सामना खरीदेगा लेकिन उम्मीद इस बात की भी कोई उनकी झोली दो बुंद खुशियों से भर देगा। उनके घर पर भी कोई इंतजार करता होगा, लेकिन देर तक भी उनकी आंखों में आशा की वो लौ जलती हुई दिखाई देती है। उसी शिद्दत के साथ वे अपने घर वापस आ जाते हैं और वहीं सुखी रोटी खाकर सो जाते हैं। कल फिर एक नई ऊर्जा के साथ जीवन के नए दिन की शुरुआत करते हैं। क्या उन्हें सिर्फ देखने भर का ही हक है। क्या वो एक अच्छी जिंदगी की कामना कर सकते हैं। क्या हम ऐसे भारत निमार्ण के सपने देख सकते हैं जहां हर कोई अपने हक की खुशियां पा सके। जी सके अपना जीवन। जीवन के उस खूबसूरत भाव को व्यक्त कर सकें।

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