Story behind the story
मैं रिपोर्टिंग और लंबे वक्त तक करना चाहती थी, लेकिन ऐसे हालात बन रहे हैं, स्थिति बिगडने लगी है। ऐसी फीलिंग आने लगी है रिपोर्टिंग को लेकर अब लगता है ये इतना बेकार तो कुछ नहीं करना था। क्या कर नहीं पाई ठीक से या सच में यही सच है। मैंने अपना बेस्ट दिया और देती हूं, मैं इस बात से इंकार नहीं करती। लेकिन फिर क्यों क्या ये कोई इशारा है। क्या बस एक साल मुझे खुद को टेस्ट करना था। मैं यही नहीं मान सकती कि मैं कर नहीं सकती। ये मान सकती हूं कि शायद रिपोर्टिंग मेरे लिए नहीं है।
इतनी गंदगी मैंने नहीं देखी कभी। इस दौरान मेरे अंदर कुछ मरता चला गया और मैं समझ नहीं पाई। इतने रंग, इतने चेहरे,क्या यही असली दुनिया है। मैं कहां थी अब तक। मीडिया का असली रंग रिपोर्टिंग से ही पता लगता है। इतनी नफरत सी हो गई मुझे खुद से अपने काम से। और जब आपको कोई काम खुशी न दे और दिल रोज तोडता रहे तो उसे छोड़ देना चाहिए।
ये वो सुमन नहीं है। भले ही रिपोर्टिंग में लोग सालों अव्वल रिपोर्टर बनते हैं, लेकिन मेरे दिल ने कह दिया मैं अपने आपको मारकर ये नहीं बन सकती। क्या इसके पीछे कोई इशारा है। क्या बस एक्सपेरिमेंट जरूरी था। अबभी कोई फैसला नहीं लिया है। लेकिन रिपोर्टिंग के दौरान इतनी बहरूपी दुनिया मिली की मजबूर हो गई ये कहने पर गंदगी है बस। कितना भी कर लो, सफलता का पैमाना नहीं है कोई। एक दिन अच्छी स्टोरी दे दी या न्यूज बस अच्छा लगा। खुशी वहीं तक, यही सफलता। अगर दो दिन ढंग से काम नहीं किया, अच्छी स्टोरी नहीं की तो आप असफल। आपको खुश रहने का कया हक है। आप बस बेकार हो। कोई दो बड़ी ब्रेकिंग देकर अव्वल पत्रकार समझता है खुद को । कोई दो अच्छी स्टोरी करके। कोई चुप चाप बस मस्ती और अड्डा मारकर। किसी का कोई पैमाना नहीं है। मेरा खुद का नहीं है।
अच्छा काम कर लूं , बास कुछ न कह दे ऐसा सोचकर दिन निकलता है। जिस दिन कुछ अच्छा नहीं किया उस दिन लगता है जिंदगी में पत्रकारिता में क्या किया। ऐसे थोड़े ना होता है। और वैसे भी रिपोर्टिंग में अपनी जिंदगी तो दाव पर होती है। पर्सनल लाइफ में कोई मर जाए लेकिन आपको स्टोरी करनी है। खबर लानी है। ये है काम आपका .....
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