कहां खो गई हूं
इस कदर वक्त ने मजबूर किया है मुझे, कि अपना वजूद ही भूलने लगी हूं मैं
कुछ उलझा सा है मेरे भीतर, जिसे सुलझाने में कब से लगी हूं मैं
इक धागा सुलझता है तो दूसरे में पड़ जाती है गांठ
कितने वक्त से खुद से नहीं की बात,कि औरों से तो रोजाना चर्चा होती है
औरों की सुनती हूं, औरों से ही सुनती हूं, औरौं से कहती नहीं
मेरी आवाज, एहसास और मेरे जज्बात कहीं गुम से हैं
लिखती थी,बातें करती थी,आहिस्ता से गुनगुनाती थी मैं
अब तो खुद में ही गुम हूं, ढूंढती हूं कोई बहाना महसूस करने का
सपने, दर्द नींद,गुस्सा और चाहत सब सोए से लगते हैं
पहले तो टूटने के बाद टुकडो को समेटती थी मैं
अब तो बिखरे हुए लम्हों में ही वक्त वक्त बीत जाता है
कहां गई मेरी वो आहट जो मैं खुद ही सुन सकती थी
आज बस दुनिया का शोर है, बस मेरी आवाज कहीं सुन है
मैं बाहर नहीं, अंदर ही अंदर कहीं भटक रही हूं, स्तब्ध हूं
कभी न खत्म होने वाली एक तलाश है ये
कहीं से कोई उम्मीद लेकर आए, राह ताक रही हूं मैं
जबकि मुझे मालूम है बाहर से ये उम्मीद चलकर नहीं आएगी
मेरे अंदर के उस दीए को फिर से मुझे ही जलाना होगा
कई बार पहले भी आई है आंधी, हर बार एक आश की तिंका छोड़ गई
तो क्या इस बार आंधी ने अपने साथ सब कुछ उड़ा लिया.....
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