Story behind the story

दीवाली जो सबके लिए सबसे बड़ा त्योहार है। मुझे भी पूरे साल इस त्योहार का इंतार रहता है। क्योंकि एक साल में इस एक ही त्योहार पर घर जाना होता है, ऐसे में अगर इसमें भी घर जाने को ना मिले, अपनों से मिलकर ए त्योहार मनाने का मौका ना मिले तो आप समझ सकते हैं कैसा लगता है। पत्रकारिता में ऐसा होता है।
चारों तरफ रोशनी, लाइट्स, दीए, उजाला, रौनक,मिठाई, पटाखे, रंगोली और खुशी। मार्केट, दुकानें, गलियां, घर, आफिस, सब सज गए हैं। दीवाली को चंद दो दिन बाकी है। चारों ओर सबके दिल में खुशी है, अपनों को गिफ्ट्स देने के लिए बाजारों में लंबी लाइन। हम भी निकले त्योहार की स्टोरी करने। बाजार, दुकान, गहने, हर तरह की स्टोरी। लेकिन अपने लिए क्या। कुछ नहीं। फेस्टिव मुड की स्टोरीज एक हफ्ते से चल रही थी। दीवाली के पहले दिन तक बाजार की रौनक और चकाचौंध पर स्टोरीज बनी। ये स्टोरीज आपके और आर्गनाइजेशन के लिए होती थी। क्या हम बस स्टोरी का हिस्सा ही हैं। हमारा इन खुशियों पर कोई हक नहीं है। क्या हम आपको रीप्रेजेंट करते हैं तो हम खुद उसका हिस्सा नहीं बन सकते हैं। ऐसा ही हुआ दीवाली  के मौके पर। 

मैंने अपने एडिटर से कहा भी नहीं कि मुझे छुटटी चाहिए दीवाली पर घर जाना है।उससे पहले ही उसने लाखों बातें सुना दी। पता नहीं जो भी है लेकिन वो एहसास बहुत बुरा होता है। जब आप दूसरों की खुशियों  को दिखाते हो और उनके प्रतिनिधि बनते हो और आपकी अपनी कोई खुशी माइने नहीं रखती है। आपकी दीवाली नहीं है। आपको घर जाकर अपनों के साथ दीवाली मनाने का हक नही है। ये है पत्रकारिता। हर त्योहार में बस कवरेज करो।  सेलेब्रेट नहीं। 

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