Story behind the story
एक बात तो इन चंद रोज की रिपोर्टिंग के दौरान महुसूस हुई, रिपोर्टिंग या जर्नलिज्म में आप जितना भी कर लो कम है। रोज बेहतर करो, एक दिन कम हो जाए तो इतना सुनने को मिलता है। फेस्टिव के दौरान बहुत स्टोरीज होती है और मैंने भी अपना बेस्ट देने की कोशिश की। रोज कुछ ना कुछ अच्छी स्टोरी। मेरी नजर में मैं अच्छा कर रही हूं और इतना ही कर सकती हूं, लेकिन अल्टीमेटली ये सुनने को मिला की कमी थी। ये कम रह गया ये अच्छा नहीं हुआ।
पहले बुरा लगा, उदास हुई फिर बाद में खुद से कहा कि मैं इतना ही कर सकती थी और इतना अच्छा था। आप हर रोज बेहतर प्रयास कर सकते हो लेकिन उसपर मुहर लगेगी ये आपकी जिम्मेदारी नहीं है या हर किसी को वो समझ आए,आपका काम समझ आए ये आप तय नहीं कर सकते। मैंने ये सोचकर खुद को रोक लिया। ये काम आपको कभी संतुष्ट नहीं कर सकता है। ये मैंने रियलाइज किया है। लेकिन संतुष्टता आपको कहीं और अपने जीवन के बाकी हिस्सों में ढूंढनी होगी। वरना जीवन काम के आधार पर सोचोगे तो अधुरा लगेगा।
एडिटर से किसी भी स्टोरी के लिए वाह वाही मिले ऐसा तो सपने में नहीं होता है क्योंकि वो जब तक सबके सामने आपको चार बात सुना नहीं देते उन्हें सुकून नहीं। वो एडिटर हैं भाई वो आपकी गलती निकालने की तंख्वा लेते हैं। समझे।।।।
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