एक लौ कोई तो जला दो यारो...
मैं हर बार आंधी से लड़ी, तूफानों को पछाड़ा, कोई भी कठिनाई मुश्किल नहीं रोक पाई रास्ता मेरा, मैं टूटी बिखरी वक्त से हारी लेकिन खुद ही तय किया अपना सफर...लेकिन इस बार क्यों रुक गया सब कुछ..क्यों ऐसा लग रहा है जैसे ये आंधी उड़ा ले गई सब कुछ..एक दम शुन्य, जीरो..सब कुछ खत्म..सुना सा मन और उजड़ी सी दुनिया...एक लौ तो कोई जला दो यारो..
ऐसे आलम में लगता है कोई तो आए और हाथ पकडकर इस दल दल से बाहर निकाले हमें, एक चिराग तो कोई इ अंधेरे में जला दे..कोई रोशनी की लौ जला दे...बस एक तिंके का सहारा चाहिए।..मैं दोबारा से चल पाउंगी, कोई मुझे मुझसे मिला दे..मैं आगे बढ़ जाऊंगी..
लेकिन ऐसा नहीं होता..ऐसा नहीं हुआ..कोई नहीं आता, जिनके लिए आप कभी रोशनी बने थे, या जिनको आपने राह दिखाई थी..कोई नहीं जानता, कोई नहीं बढ़ाता मदद का हाथ ..ये लौ खुद ही जलानी होगी..इतना तो मुझे समझ आ गया इन दिनों...कोई नहीं थामता हाथ, कोई नहीं सिंचता उस पौधे को..एक बूंद पानी नहीं है किसी के पास...ये उम्मीद कहीं से उधार नहीं मिलेगी, कहीं खरीदकर नहीं मिलेगी...हमें खुद ही अपने दिल में इसे जलाना होगा..हम ही जिम्मेदार होंगे इस रोशनी के...बस अभी नहीं जल पा रही ...वक्त लगेगा लेकिन जलेगी जरूर..बस डर है इस सफर में दोबारा जीने की उम्मीद के बीच दम न तोड़ दे जिंदगी...
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