जब मैं अपनी मां की मां बन गई...

मां को मोतियाबीन हो गया है, उन्हें अब एक आंख से दिखाई नहीं देता, मैं सोचती हूं कभी अंधेरे में मैं अगर गिर जाऊं तो क्या होगा? क्या वो मुझे उठा लेंगी? क्या वो मेरी आहट से मुझे अंधेरे में भी जान लेंगी? नहीं, अब ऐसा नहीं होगा, मैं उनकी आंखें तो वापस नहीं ला सकती,लेकिन क्या मैं उनकी रोशनी बन सकती हूं?हां अब उन्हें मेरी जरूरत है। मैंने कई बार मां के उस गर्म एहसास को महसूस करने की चाह की,जो कभी सर्द रातों में होता है, जो कभी थकान के बाद उनकी गोद में सिर रखने के बाद आता है,लेकिन मां हर बार मैं निराश हो गई और थक कर यूंही तकिये में सिर रखकर सो गई।क्योंकि तुम पूरे दिन काम करके, बातें सुनकर इतना थक जाती थी कि
भूल ही जाती थी पूछना कि सुमन कैसी हो, दर्द तो नहीं है हाथों में...कोई बात नहीं, मैं तुम्हारी मां बन गई और अपने कंधे को आगे कर दिया। मां मैं हमेशा चाहती थी कि तुम कभी मुझे अपने सिने से लगाकर कहोगी 
तू चिंता मत कर मैं सब संभाल लूंगी, छोड़ ये सब आजा, परेशान मत हो, अरे मैं हूं ना। मगर ऐसा कभी हुआ नहीं। जब याद आता है कि तुम भी तो दूर रही मां के उस एहसास से सालों, तुम्हें भी तो नहीं मिली आंचल की वो छांव...तो दिल करता है बन जाऊं मैं ही मां तुम्हारी, न्योंछार कर दूं तुमपर अपनी दुनिया सारी....

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