Review : 'सपने बस देखने से नहीं, जीने से पूरे होते हैं'
अब्दुल कलाम ने सच ही कहा है कि सपने वो नहीं होते जो हम रात में देखते हैं, बल्कि सपने तो वो होते हैं जो हमें सोने ही नहीं देते...जी हां, आज रिलीज हुई स्वरा भास्कर की फिल्म निल बटे सन्नाटा कुछ ऐसा ही संदेश देती है। ये फिल्म भी आपको आपके खोए हुए सपने की याद दिलाएगी। निल बटे सन्नाटा इस टाइटल में ही सारी बात छिपी है। निल बटे सन्नाटा मतलब, जिसका कुछ नहीं हो सकता है, चारों ओर सुना है। लेकिन फिर भी एक उम्मीद कहीं ना कहीं बाकी होती है। आज की भागती दौड़ती जिंदगी के लिए एक अच्छा संदेश है ये फिल्म। स्वरा भास्कर एक स्वतंत्र अभिनेत्री हैं, बहुत कम फिल्में करती हैं, लेकिन अपने किरदार को पूरी तरह से जीने का काम करती हैं।
भले ही आज की कर्मशियल फिल्मों के मुकाबले इस फिल्म का कोई अस्तित्व नहीं है, लेकिन सादगी से सजी ये फिल्म दर्शकों के दिल को जरूर छुएगी। ताजमहल के पीछे मलिन बस्ती में रहने वाली चंदा सहाय खुद के लिए तो कोई सपना नहीं देखती, लेकिन उसका सपना ही उसकी बेटी है। बेटी की इर्द गिर्द ही उसकी जिंदगी घुमती है। घरों में खाना बनाने का काम करना, ढाबे में बर्तन धोना और दिहारी मजदूरी करके अपना सपना जिंदा रखती है ये चंदा।
चंदा को देखकर आपको ये तो समझ आ जाएगा कि सपने देखने की और उसे पूरा करने की कोई उम्र नहीं होती है, चंदा की बेटी अपेक्षा जो 10वीं में पढ़ती है, लेकिन पढ़ाई में उसका बल्ब फ्यूज है। उसे पढ़ाई के अलावा हर कुछ करना है। उसे लगता है कि इतना पढ़कर होता क्या है, बाई की बेटी है तो बाई ही बनेगी। इसी सोच के साथ वो बड़ी होती है, लेकिन चंदा अपनी बेटी की इस सोच को बदलना चाहती है और उसमें अपने सपने को जिंदा रखना चाहती है।
चंदा को देखकर आपको ये तो समझ आ जाएगा कि सपने देखने की और उसे पूरा करने की कोई उम्र नहीं होती है, चंदा की बेटी अपेक्षा जो 10वीं में पढ़ती है, लेकिन पढ़ाई में उसका बल्ब फ्यूज है। उसे पढ़ाई के अलावा हर कुछ करना है। उसे लगता है कि इतना पढ़कर होता क्या है, बाई की बेटी है तो बाई ही बनेगी। इसी सोच के साथ वो बड़ी होती है, लेकिन चंदा अपनी बेटी की इस सोच को बदलना चाहती है और उसमें अपने सपने को जिंदा रखना चाहती है।
फिल्म ने शुरू से अंत तक दर्शकों को बांधे रखा है, जमीनी भाषा का इस्तेमाल, कोई आईटम नंबर नहीं, धीमा संगीत, अच्छी कहानी और मां बेटी के रिश्ते की अनुठी दास्तां हैं बयां करती है ये फिल्म। स्वरा भास्कर ने बहुत ही साहस के साथ अपने किरदार को जीया है। लेकिन कहीं भी ये फिल्म मुख्य किरदार पर नहीं टिकी है, बल्कि कई किरदारों को भांपती है। निर्देशक अश्विनी अय्यर ने फिल्म में कहीं भी उदासी नहीं आने दी है, हर दृश्य अपनी ओर खिंचता है। फिल्म वर्तमान में सर्घष करके एक सुंदर भविष्य की ओर लेजाती कहानी है।
दीदी की भूमिका निभाती रत्ना पाठक हमेशा ही अपनी एक्टिंग से दर्शकों का दिल छू जाती हैं। ये वहीं दीदी होती हैं जिनके घर पर चंदा काम करती हैं और जो उसे उसके होने का एहसास कराती हैं। इसी दीदी के कहने पर स्कूल जाती है और बेटी को उसके सपने का एहसास कराती है। भले ही अनुभव के दृष्टिकोण से ये फिल्म आपकी उम्मीदों पर नहीं खरी उतरेगी, लेकिन सच्ची कहानी और बेहतरीन प्लॉट पर बनी ये फिल्म बहुत ही सहज है। अपेक्षा का किरदार निभाने वाली बच्ची ने भी उम्दा अभिनय किया है। पंकज त्रिपाठी ने बहुत ही शानदार टीचर की भूमिका निभाई है। फिल्म में हंसाने का काम उन्होंने ने ही किया है।
दीदी की भूमिका निभाती रत्ना पाठक हमेशा ही अपनी एक्टिंग से दर्शकों का दिल छू जाती हैं। ये वहीं दीदी होती हैं जिनके घर पर चंदा काम करती हैं और जो उसे उसके होने का एहसास कराती हैं। इसी दीदी के कहने पर स्कूल जाती है और बेटी को उसके सपने का एहसास कराती है। भले ही अनुभव के दृष्टिकोण से ये फिल्म आपकी उम्मीदों पर नहीं खरी उतरेगी, लेकिन सच्ची कहानी और बेहतरीन प्लॉट पर बनी ये फिल्म बहुत ही सहज है। अपेक्षा का किरदार निभाने वाली बच्ची ने भी उम्दा अभिनय किया है। पंकज त्रिपाठी ने बहुत ही शानदार टीचर की भूमिका निभाई है। फिल्म में हंसाने का काम उन्होंने ने ही किया है।
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